लौट आओ पाठक
लौट आओ पाठक कि किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं। सफ़दर हाशमी की कविता-‘किताबें करती हैं बातें' की ये दो पंक्तियाँ उन पाठकों को पुकार हैं जो इन दिनों सोशल मीडिया की क्रांति में कहीं गुम हो रहे हैं। किताबें, अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ पाठकों की बेपरवाही की शिकार हो रही हैं। मगर किताबें अपना महत्व जनती हैं, इसलिये हर हाल में अपना अस्तित्व बचाने में लगी हैं, क्योंकि इन्हें यह समाज, देश बचाना है। इंटरनेट की क्रांति और सोशल मीडिया की आंधी ने न जाने कितने ही पत्र-पत्रिकाओं, ज्ञानवर्धक पुस्तकों एवं ताजा खबरों की समीक्षा के साथ अखबारों के प्रस्तुतिकरण पर जैसे आघात कर दिया है। छोटे-मंझोले अखबार और प्रिंटिंग प्रेस जैसे ठप्प पड़ गये हैं। अगर सांसें चल भी रही हैं तो बड़े नामचीन प्रिंट की, मगर उनकी भी ताकत में भारी कमी आई है। आज मुख्य अखबारों को ही देख लीजिये, मजबूरी में पन्ने सिमट रहे हैं। चाहे महँगाई का जितना रोना रो लें, बाजार में न ही चीजों की कमी है और न ही उसके प्रचारकों की, लेकिन इन प्रचारकों ने भी सोशल मीडिया का रुख कर लिया है। शायद उन्हें ग्राहक की उम्मीद वहाँ ज्यादा है। लोग ऑफिस में काम करते वक्त लैपटॉप या डेस्कटॉप पर सरसरी नजरों से खबरें एवं विज्ञापन देख लेते हैं, तो वहीं राह चलते हाथ में पकड़ा मोबाइल सारी खबरें दे देता है। इन दिनों लगभग सबकी दिनचर्या यही है। इसलिये तो गुलजार के शब्दों में- किताबें झांकती हैं, बंद अलमारी के शीशों से, बड़ी हसरत से तकती हैं, महीनों अब मुलाकातें नहीं होती, जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुजर जाती हैं, कम्प्यूटर के पर्दे पर...यह दर्द भरा नग्मा कुछ इस तरह है, जैसे किताब के कोरों से निकलकर आया हो और अपने प्रिय पाठक को सराबोर कर देने के लिये व्याकुल हो।
बदलते दौर में भले ही गूगल जैसे बड़े सर्च इंजन पर लाखों किताबें मौजूद हैं, मगर न ही उनके पाठक हैं और न उन किताबों को पढ़ने में पहले जैसा आनंद। क्योंकि किताबों को पढ़ने का असली मजा तो तब है, जब केवल साथ पाठक और किताब का हो। जब पाठक तन्मयता से अक्षरशः पढ़ते हुए उसके मर्म को समझे। जब उसे पढ़ते हुए थक जाए तो बिछावन के सिरहाने रख दे। वक्त मिलने पर शुरुआत वहीं से करे जहा से छोड़ा था। तभी तो वह साथी बनता है। सच्चा साथी। जो आजकल मिलना बेहद मुश्किल है। आज किताबें अकेली हैं तो पाठक भी अकेला ही है। जी हाँ, भीड़ में अकेला ।जीवन की अति व्यस्ततम दिनचर्या में कम्प्यूटर, मोबाइल बिल्कुल सतही जानकारी दे रहे हैं, जिन्हें पढ़कर क्षणिक जानकारी तो मिल जाती है, मगर वक्त के साथ दिमाग से निकल भी जाती है। छात्र, इसके सबसे बड़े शिकार हो रहे हैं। परिजनों की देखा देखी वह भी सोशल मीडिया पर आ गये हैं। वह उन सारी चीजों से बेवक्त रूबरू हो रहे हैं, जो उनके कच्चे दिमाग को भ्रमित कर सकता है। यह भी बड़ी वजह है कि बड़े-बड़े गुनाह बच्चे कर रहे हैं, जिन्हें परिणाम का अंदाजा भी नहीं है।
याद करिये पुराने दिन जब पाठ्य पुस्तकों के अलावा बच्चों के हाथ में नंदन, चंपक, पंचतंत्र जैसी पत्रिकाएँ हुआ करती थीं। बचपन की सीख पूरी ज़िन्दगी काम आती है। किताबों का इसमें बड़ा योगदान रहा है। उम्र के इस पड़ाव पर जीवन के उतार-चढ़ाव के बावजूद बचपन में पढ़ी एक पत्रिका आज भी सदैव जेहन में रहती है। शायद वह पत्रिका मेरी प्रेरक भी रही है, 'सर्वोत्तम' नाम के अनुरूप ही ज्ञान भी निहित थी। वर्तमान में यह छपती है या नहीं मगर जानकारी से परिपूर्ण यह पत्रिका साहित्य के क्षेत्र में मील का पत्थर रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि किताबों, पत्रिकाओं का चयन हमारा है। यह हमारी मर्जी है कि हमें कौन सी किताब पढ़नी है और बेशक वही किताब हमारे हाथ में होगी।
इंटरनेट की आंधी में हम और बच्चे उन चीजों को भी देखते और पढ़ते हैं, जो हमारे लिये गैरजरूरी है। एक आंकड़े के अनुसार 45 करोड़ से अधिक लोग भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिनमें 30 से 35 करोड़ इंटरनेट का इस्तेमाल बातचीत एवं मनोरंजन के लिये करते हैं। अनुमानित है कि आगामी 5 से 10 साल में 50 करोड़ और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगेंगे। विभिन्न कम्पनी एवं सरकार इसी कोशिश में है। बदलाव हो, जीवन में गति हो, यह बेहद जरूरी है, मगर इस बदलाव में हम अपनी पूरी दिनचर्या और संस्कार बदल दें, यह घातक है। किताबों का कोई विकल्प नहीं है। पुस्तक अध्ययन, मनुष्य को, समाज को और देश को स्थायी प्रतिष्ठा प्रदान करता है। जब तक मनुष्य में जानने की इच्छा है, मुनष्य उससे दूर नहीं रह सकता। यह एक संस्कार है, जो हमें समृद्ध करता है।