विदेशी खेल क्रिकेट के लिए नई चुनौती, माटी का खेल कबड्डी
क्या क्रिकेट की चमक को कबड्डी के कोर्ट से उठती धूल धुंधलाने के लिए तैयार है ? ये सवाल हाल के दिनों में लोगों के बीच क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता ने खड़ा कर दिया है। हाल के दिनों में मुंबई में कबड्डी के मैदान पर जब भारतीय क्रिकेट के करिश्माई कप्तानों में से महेन्द्र सिंह धोनी दिखे, तो यह चर्चा लोगों के बीच उठने लगी कि क्रिकेट के सबसे फिट खिलाडि़यों में से एक क्रिकेट से रिटायर होने के बाद कबड्डी में अपनी संभावनाएं तलाशने लगे हैं। क्रिकेट में उनकी चुस्ती-फुर्ती और विकेटों के बीच तेज रफ्तार दौड़ ने इस कौतूहल को और बढ़ा दिया। अब ये तो धोनी ही बताएंगे कि उनका भविष्य में क्या इरादा है, लेकिन प्रो कबड्डी लीग में कबड्डी एरिना में उनकी मौजूदगी ने इतना तो जाहिर कर ही दिया कि मिट्टी से जुड़े धोनी की मिट्टी के खेल कबड्डी में अच्छी-खासी दिलचस्पी है। यह कोई अनायास पैदा हुआ प्यार नहीं है। रांची के धोनी अपने शुरुआती दिनों में आम भारतीय युवाओं की तरह कबड्डी भी खेला करते थे। वे प्रोफेशनल कबड्डी प्लेयर तो नहीं बने, लेकिन इस खेल में भी अच्छा खासा पसीना बहाया।
वैसे हकीकत ये है कि आज शहर से लेकर गांव तक क्रिकेट ने जरूर गहरी पैठ बना ली हो, लोग भले ही चौके और छक्के के दीवाने हों, लेकिन मिट्टी से जुड़े गांव के लोगों में आज भी कबड्डी को लेकर दीवानगी कम नहीं हुई है। गांव-गवार में आज भी शाम को युवा, कबड्डी में हाथ आजमाते दिख जाते हैं। प्रो कबड्डी लीग ने तो शहरों में भी इस खेल को घर-घर तक पहुंचाया है। जब प्रो कबड्डी लीग और क्रिकेट चल रहा हो तो लोग क्रिकेट की चर्चा के बीच पटना पाइरेट्स जैसी प्रो कबड्डी लीग की धुरंधर टीमों के प्रदर्शन की चर्चा करते जरूर दिख जाते हैं। प्रो कबड्डी लीग के आयोजकों ने शायद लोगों की इस नब्ज को बखूबी पकड़ा है। उन्हें पता है कि करोड़ों भारतीय शानदार प्रदर्शन के बाद भी क्रिकेट को इंग्लैंड से आया विदेशी खेल ही मानते हैं जबकि कबड्डी को वो दिल से प्यार करते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि लोगों के बीच अगर कबड्डी को लेकर आज भी ऐसा बेइंतहा प्यार है तो क्या कभी ऐसे सुनहरे दिन आएंगे कि वह क्रिकेट की जगह ले ले।
यह बात सुनने में थोड़ी अजीब जरूर लगती है, लेकिन इस खेल ने उम्मीद तो जरूर जगा दी है। इस खेल को वैश्विक पहचान दिलाने में जुटे प्रायोजक भी कुछ इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। प्रायोजकों की मानें तो बढ़ती राष्ट्रीय भावना के इस दौर में बाजार भी अब कबड्डी को ज्यादा तवज्जो दे रहा है। इस बात में कोई शक नहीं कि प्रो कबड्डी लीग के आयोजन के बाद देश में कबड्डी की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। कबड्डी की लोकप्रियता को बढ़ाने में जहां आई लीग का हाथ है, वहीं भारतीय टीम ने अपने शानदार प्रदर्शन से भी लोगों को इस बात का एहसास कराया है कि भारत आज भी अपने मूल खेल की महाशक्ति है। भले ही ओलंपिक में कबड्डी को जगह नहीं मिली हो, लेकिन दुनिया में भारत आज भी इस खेल का सिरमौर बना हुआ है। यह सच है कि पिछले एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक तक नहीं पहुंच पाने की भारतीय पुरुष और महिला टीम की असफलता ने इस खेल के चाहने वालों को निराश जरूर किया, लेकिन उम्मीद फिर भी कायम है। लोगों के साथ बाजार को भी पता है कि दुनिया में कबड्डी में भारत की ताकत का मुकाबला करना आसान नहीं है। यह लोगों के दिलों से जुड़ा खेल है। बाजार में खेलों के प्रायोजन से जुड़े आंकड़े भी इस बात का इजहार करते हैं।
दरअसल 2014 में प्रो कबड्डी लीग की शुरुआत से इस खेल को नई ऊंचाई और लोकप्रियता मिली। पहली बार लोगों ने धूल से भरे खेल में स्पोर्ट्स एरिना में जगमग लाइट्स के बीच रंग बिरंगे चमकदार परिधानों में कबड़ी खिलाड़ियों को एक-दूसरे को मात देने की कोशिशों में जुड़ा हुआ देखा। लोगों को पहली बार एहसास हुआ कि यह खेल भी इतना दमदार और चमकदार हो सकता है। लोकप्रियता भले ही कबड्डी को पिछले कुछ सालो में मिली हो, लेकिन इस खेल का इतिहास काफी पुराना रहा है। सच तो यह है कि इस खेल ने क्रिकेट से काफी पहले उपमहाद्वीपों में प्रवेश पा लिया था। सात खिलाड़ियों के इस खेल को अलग-अलग इलाकों में सिर्फ कबड्डी ही नहीं बल्कि 'हू-तू-तू ',' हा-डू-डू 'और 'चेडु-गुडु' नाम से जाना जाता है ।
कबड्डी की शुरूआत
ताकत और रफ्तार वाले इस खेल की जड़ें वैदिक युग में करीब तीन-चार हजार साल पहले जमी हुई मिलती है। भारत में इस खेल को महाभारत काल से भी जोड़ा जाता है। उदाहरण दिया जाता है कि अर्जुन के बेटे अभिमन्यु ने कौरवों के रचे गए चक्रव्यूह को आज कबड्डी के नाम से पुकारे जाने वाले खेल कबड्डी की तरह ही तोड़ा था। हालांकि बाद में अभिमन्यु चक्रव्यूह में ही फंसकर मारे गए थे। वैसे तो कबड्डी को भारतीय खेल माना जाता है, लेकिन इसके जन्म को लेकर अभी भी विवाद है। ईरान का दावा है कि इस खेल का जन्म उसके देश में हुआ। .
वैसे इस खेल का जन्म जहां भी हुआ हो लेकिन भारत में कबड्डी के मौजूदा लोकप्रिय स्वरूप का श्रेय महाराष्ट्र को दिया जाता है। यहीं 1915 से 1920 के बीच कबड्डी के नियम बनने शुरू हुए। धीरे-धीरे इस खेल को वैश्विक पहचान मिलनी शुरू हुई। बांग्लादेश ने अपने निर्माण के बाद इसे अपना राष्ट्रीय खेल बना लिया।
1978 में एशियन अमेच्योर कबड्डी फेडरेशन बनने के बाद पहली एशियन कबड्डी चैम्पियनशिप 1980 में हुई। 1982 में दिल्ली में खेले गए एशियन गेम्स में इसे जगह मिली। पहला कबड्डी वर्ल्डकप साल 2004 में खेला गया। साल 2014 में प्रो कबड्डी लीग के आयोजन के साथ ही इस खेल को मुख्यधारा का खेल बनाने में बड़ी मदद मिली। इसने कबड्डी को नई ऊंचाईयां भी दीं।
प्रो कबड्डी लीग की वजह से न सिर्फ घरेलू बल्कि अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों ने उर्जा से भरे इस खेल को सराहा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कबड्डी दिनों दिन आगे बढ़ रहा है । आलम ये है कि 2014 में जब प्रो कबड्डी लीग का को टीवी पर दिखाया जा रहा था, उस दौरान आयोजित दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल भी टीवी पर लोकप्रियता के मामले में कबड्डी से पीछे छूट गया था। कबड्डी को लेकर प्रायोजकों की बढ़ती रूचि और इससे चलते क्रिकेट की प्रायोजक राशि में कमी इस बात का संकेत तो जरूर देता है कि आने वाले दिनों में शायद कबड्डी इस हालत में खड़ा हो जाए कि वह क्रिकेट के सामने एक चुनौती बन जाए। कबड्डी लोकप्रियता के मामले में कभी क्रिकेट को पीछे छोड़ पाएगा या नहीं यह अनुमान लगाना तो मुश्किल है, लेकिन इतना तो साफ है कि इस खेल को लेकर बढ़ती दीवानगी से भविष्य में यह खेल और भी ज्यादा रुचिकर और प्रतिस्पर्धी बनेगा।